मेरा दलित बनाम तेरा दलित’ का खेल बनकर रह गया है राष्ट्रपति पद का चुनाव
राजनीति के क्रिकेट में दलित को एक क्रिकेट गेंद की तरह स्तेमाल किया जा रहा जहा एक पार्टी इस गेंद से विपक्ष को क्लीन बोल्ड करना चाह रहा है तो विपक्षी पार्टी इस गेंद को दलित बैट से छक्का मारने की जुगत में है ।आज जाती पाती का भेद नही ये राजनीतिक पार्टियां कहती है दलित हमारे बराबर है कहती है लेकिन वही नेता दलित के यहा खाना खाने के वक्त ली गई सेल्फी को मीडिया में पोस्ट करके खुद को उनका हितैषी साबित करते है। अगर दलित को वास्तव में अपने बराबर का हक देना है तो उनका सम्मान करना चाहिए सेल्फी लेकर उन्हें सच मे दलित साबित करना कहा उचित है । अब राष्ट्रपति चुनाव को ही देख लीजिए
तीन दशक पूर्व जाति का जो जिन्न बोतल में से निकाला गया था उसने अब भारतीय राष्ट्रपति पद को भी निगल लिया है। अब स्थिति यह बन गई है कि अगले राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे व्यक्ति के बारे में यह नहीं पूछा जा रहा कि वह सही उम्मीदवार है या नहीं, उसकी योग्यताएं क्या हैं और क्या वह इस पद के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति है? बल्कि यही चर्चा है कि वह सही जाति से संबंधित है और वफादार है। इस रुझान से निश्चय ही जातिगत वैमनस्य को अधिक बल मिलेगा। लेकिन इसकी चिंता किसको है?

भाजपा ने बिहार के ‘महादलित’ रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर दूसरी पार्टियों से पहल करने का मौका छीन लिया, जबकि कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष के भांति-भांति के दल जातिगत चौखटे में से या तो निकलने की इच्छा ही नहीं रखते या फिर उनमें इतनी क्षमता ही नहीं। उनके सामने अन्य कोई विकल्प ही नहीं था। आखिर उन्होंने भी बिल्कुल भाजपा की नकल करते हुए लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष और ‘दलित की बेटी’ मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस तरह यह चुनाव ‘मेरा दलित बनाम तेरा दलित’ का खेल बनकर रह गया है। स्पष्ट है कि इस खेल में कोई भी पार्टी अपने दलित वोट बैंक को आहत नहीं होने देना चाहती क्योंकि जातिगत विद्वेष की ऐनक में से देखा जाए तो सत्ता में बने रहने के लिए यह जुगाड़ बहुत लाभदायक है। लेकिन इसके फलस्वरूप सबसे ऊंचे संवैधानिक पद के लिए लड़ाई एक तमाशा बनकर रह गई है।

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